काबुल में तालिबान

 

काबुल में तालिबान

पहाड़वासी

देहरादून। तालिबान विद्रोही काबुल के बाहरी इलाकों तक पहुंच गए हैं। वे चाहते हैं कि उन्हें राजधानी का नियंत्रण शांतिपूर्ण तरीके से सौंप दिया जाए। अजीब बात है कि तालिबान का अफगानिस्तान पर करीब-करीब कब्जा हो चुका है, जबकि अमेरिका के सैनिकों को वापस बुलाने की समयसीमा खत्म होने में अभी दो हफ्ते का वक्त बचा है। वैसे, अमेरिका 31 अगस्त की डेडलाइन से पहले ही अपने ज्यादातर सैनिकों को वापस बुला चुका है। अफगानिस्तान एक सदी से दुनिया की महाशक्तियों की जोर-आजमाइश के केंद्र में रहा है और सबकी आखिरकार यहां हार हुई।

अस्सी के दशक के आखिर में सोवियत संघ के बाद अब अमेरिका की यहां हार हुई है। शीत युद्ध के दौर में जिन मुजाहिदीनों को अमेरिका ने सोवियत सेना से लडऩे के लिए खड़ा किया था, आज उन्हीं के हाथों उसकी शिकस्त हुई है। इस पर बहस चलती रहेगी कि क्या यह हार उसके लिए वियतनाम से बड़ी है या नहीं, लेकिन यहां उसने एक ऐसी गलती की है, जिसे लेकर उससे सवाल पूछे जाते रहेंगे। अमेरिका असल में अफगानिस्तान के जमीनी हालात का अंदाजा लगाने में बिल्कुल नाकाम रहा। इस सिलसिले में राष्ट्रपति जो बाइडन का 8 जुलाई का बयान गौरतलब है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अमेरिकी सैनिकों के वापस लौटने का मतलब यह नहीं है कि अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हो ही जाए।

वह मानते थे कि अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बल के तीन लाख जवान 75 हजार तालिबान विद्रोहियों का सामना करने के लिए पर्याप्त हैं। उसने पिछले 20 वर्षों में इन सैनिकों की ट्रेनिंग, हथियार और वेतन देने पर 83 अरब डॉलर की रकम खर्च की थी। यह सब बताते वक्त बाइडन अफगान सेना की कमियों से मुंह चुरा गए। सच यह है कि इसके कमांडर भ्रष्ट थे। इसके जवानों का मनोबल ऐसा नहीं था कि वे तालिबान विद्रोहियों के सामने टिक पाएं। इसलिए जब एक के बाद एक शहरों में तालिबान विद्रोही घुसने लगे तो अफगान जवान बिना लड़े वहां से भाग लिए, जबकि उनके पास कहीं अधिक आधुनिक हथियार थे। कमांडरों के भ्रष्टाचार की बात खुद अमेरिकी जांच रिपोर्ट्स में सामने आ चुकी थी, लेकिन इसके बावजूद इसे रोकने और अफगान सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए अमेरिका ने कुछ नहीं किया।

उसने अपने कई पूर्व सैन्य अधिकारियों की सलाह नहीं मानी, जो कह रहे थे कि सैनिकों को वापस नहीं बुलाना चाहिए। इससे पहले तालिबान के साथ शांति वार्ता के दौरान अमेरिकी प्रतिनिधियों ने ऐसे दिखाया कि विद्रोही बदल चुके हैं। यह सुधरा हुआ तालिबान है। स्पष्ट है कि अफगानिस्तान को लेकर बाइडन सरकार से गलती हुई है। आज उसकी इस गलती की कीमत 3.3 करोड़ अफगानियों को चुकानी पड़ रही है, जिन्हें मध्ययुगीन दौर में धकेला जा रहा है। आगे चलकर अमेरिका की यह गलती दुनिया पर भी भारी पड़ सकती है क्योंकि तालिबान बदला नहीं है। क्या उसे फिर से अपनी अफगान नीति पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए? अफगानिस्तान के प्रति अमेरिका और वैश्विक समुदाय की एक जिम्मेदारी है। उन्हें अपना यह दायित्व याद रखना होगा।

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